जातियों के जंजाल में फंसे बिहार का चुनाव जीतने वाला असली खिलाड़ी
न्यूजकंटाप
नई दिल्ली
बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा-जदयू के नेतृत्व वाले गठबंधन की स्पष्ट जीत के बाद नीतीश कुमार की बतौर मुख्यमंत्री वापसी बताती है कि दरअसल राजनीति का असली खिलाड़ी कौन है। चुनाव से पहले किसी भी बिहार के शख्स से पूछो तो वह यही कहता था कि एनडीए नहीं आरजेडी के तेजस्वी यादव के नेतृत्व वाला महागठबंधन आगे चल रहा है। दरअसल, वे लोग भी उतने गलत नहीं थे। कोरोना जैसी विकराल महामारी के बाद बेरोजगार हुए लोगों की दुश्वारियों को महसूस करने के बाद कोई भी यही कहता। इसके अलावा नीतीश कुमार के 15 साल के शासन के दौरान पनपी एंटी इनकंबेंसी भी एक बड़ा कारण था एनडीए की संभावनाओं को क्षीण बताने का। तिस पर बिहार में तो वैसे भी नौकरी, रोजगार, विकास, स्वास्थ्य और शिक्षा सेवाओं का बंटाधार पहले से ही चल रहा है। तो आखिर क्या वजह थी कि महागठबंधन अपेक्षित कामयाबी नहीं हासिल कर सका। इसके कई कारण हैं और इनमें सबसे प्रमुख वजह है दोनों गठबंधनों का शीर्ष नेतृत्व, जमीनी स्तर का जुड़ाव और जनता को समझाने की क्षमता।
आरजेडी की सहयोगी कांग्रेस थी जिसके नेता राहुल गांधी ने कुछ रैलियों को संबोधित किया। आरजेडी के तेजस्वी यादव ने ढाई सौ से ज्यादा रैलियों को संबोधित किया। तेजस्वी ने बेरोजगारी का मुद्दा भी उठाया। अपनी तरफ से तेजस्वी ने कोई कसर नहीं छोड़ी। उनके बंधे वोट बैंक (मुस्लिम-यादव) ने उनका दिल से साथ दिया। इसमें तेजस्वी कुछ जोड़ने में कामयाब रहे लेकिन इस पार्टी का और कोई नेता वह माहौल बनाने में सफल नहीं रहा या यूं कहें किसी और नेता को आगे आने नहीं दिया गया (परिवार के नेतृत्व वाली पार्टियों के साथ यही सबसे बड़ी दिक्कत है)। इस सबके बावजूद तेजस्वी का 10 लाख नौकरी देने का वायदा लगता है उतना कारगर नहीं रहा। दरअसल नौकरी एक वक्त लेने वाली प्रक्रिया है और भारतीय राजनीति में स्पष्ट तौर पर ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता जब किसी पार्टी को नौकरी देने के नाम पर वोट मिले हों। ऐसा ही अर्थव्यवस्था के साथ भी है। आर्थिक हालात के आधार पर भारत में सत्ता परिवर्तन की मिसाल देखने को नहीं मिलती। हालांकि महागठबंधन ने आर्थिक हालात, बेरोजगारी और पलायन को प्रत्यक्ष मुद्दा बनाते हुए जातीय समीकरण भी बिठाए लेकिन वे उसे इतनी सीटें नहीं दिला पाए कि सरकार बन सके।
महागठबंधन को हराने वाला एनडीए सरकार में होने के नाते पहले से ही ज्यादा ताकतवर था। आमतौर पर भाजपा किसी भी राज्य का विधानसभा चुनाव लड़ने की तैयारी कम से कम एक डेढ़ साल पहले शुरू कर देती है (जैसे बंगाल को ही ले लें)। इसके मुकाबले महागठबंधन के घटक दल देर से जागे। इस बीच कोरोना ने आकर सारी चुनावी गतिविधियों की दिशा मोड़ दी। इससे नीतीश कुमार सरकार की एंटी इनकंबैंसी कोरोना से जन्मी समस्याओं के नीचे दबती दिखी। कोरोना की समस्याओं के समाधान के लिए केंद्र सरकार और राज्य सरकार ने गरीब तबके की अन्न और धन से मदद की जो कि फौरी राहत थी। यह बात सच है कि बेरोजगारी भी बेतहाशा बढ़ी लेकिन विपक्षी नेता पूरी तरह उस मुद्दे को नहीं उठा पाए सिवाय तेजस्वी यादव के। इसके अलावा मीडिया रिपोर्ट्स को देखें तो लगता है आरजेडी ने चुनाव प्रचार भी भाजपा के मुकाबले देर से शुरू किया। महागठबंधन की संभावनाओं को कांग्रेस की कम सीटों ने धूमिल कर दिया। बहरहाल, एनडीए की जीत ने एक बार फिर भाजपा के सांगठनिक कौशल और मोदी के करिश्माई नेतृत्व पर मुहर लगा दी है। कांग्रेस का कमजोर प्रदर्शन उसके नेतृत्व की समस्याओं को फिर केंद्रीय मुद्दा बनाता है। मोदी ने यहां दिखा दिया है कि जातियों के जंजाल में हो रहे चुनाव में अगर विरोधी परिवारवादी पार्टियों का हो तो उसे हराना मुश्किल नहीं।